Monday, September 21, 2015

खुशियाँ

स्कूल का बस्ता लटकाए वो बच्चा घर लौट रहा था। शिकन थी उसके चेहरे पर। थकान हावी थी या पेपर खराब हुआ, कह नही सकते थे। जान पहचान नही थी तो बस मैं उसे एकटक निहारता रहा। नज़रे टकराई, लेकिन दोनों में से किसी के चेहरे के भाव नही बदले। एकाएक
उसका बुझा चेहरा खिल उठा।  कौतुहलवश मैं भी दूर से ही नज़रे गड़ाए देखता रहा। किसी चीज को पकड़ने की फिराक़ में वो झाड़ियों पर उछलने लगा। एक, दो, तीन। छठे प्रयास में फड़फड़ाता जीव उसके हाथ में था। वो लड़का उस नन्हे जीव को नुकसान ना पहुँचाए ये डर मन में सता रहा था।  उसे रोकने को एक कदम बढ़ाया ही था की तबतक उसने उस पंखों वाले जीव को उड़ा दिया। चेहरे पर मुस्कान लिए बच्चे के कदम फिर बढ़ चले घर की ओर। लेकिन ये क्या? कुछ पलों पहले बनी बच्चे की दोस्त, उसके घुटने पर जा बैठी। इस बार उसने मुझे देखा और खिलखिलाकर हंस पड़ा। संभले से कदम रखने लगा। अब वो अपने नए दोस्त को घर ले जाना चाहता था। कुछ ही कदमों में वो दोस्त स्वभाववश फिर उड़ गई। लेकिन बच्चा दुखी न हुआ। घर की तरफ तेजी से दौड़ लगाई । पीछे मुड़ा और फिर मुझे देख मुस्कुराया। मेरे होंठों पर भी मुस्कान तैर गई। वो आंखों से ओझल हो गया। बिन कुछ कहे, बिना एक-दूजे को जाने हम तीन, कुछ पलों के लिए मिलें और बिछुड़ गए जीवन की अत्यंत महत्वपूर्ण सीख के साथ।  जो बातें हम बड़े बड़े 'मोटीवेशनल स्पीकरों' से नही सीख पाते ,उसे एक नन्हे से बालक और रंगीन तितली ने सिखा दिया।
छोटी छोटी खुशियाँ ढूँढों और उसे भरपूर जियो।


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