Tuesday, June 4, 2013

मुस्कान झूठी हैं...

बचपन में एक गीत अकसर रंगोली में सुनाया जाता था । वही मुकेश की आवाज़ में राज कपूर साहब पर फिलमाया गया - ’किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार......’। फिर हाल ही में आमिर की फिल्म तलाश का गीत आया - मुस्कान झूठी हैं.......। ये दो गीत आपस में कितने जुदा हैं । जी तो चाहता है कि मैं भी राज साहब की तरह हर किसी मुस्कुराहट पे निसार हो जाऊं और अगर उस का दर्द भी मिले तो बांट लूं लेकिन आज के दौर में आमिर की बात ज्यादा तर्कसंगत लगती है। आप खुद ही पांच लोगों पर ये आजमा कर देखें, आपको भी समझ आ जाएगा कि हर चीज़ जो चमकती है वो सोना नही होती। बहरहाल मैं इस झूठे सच्चे के फेर से बाहर आता हूं और आपको एक वाक्या बताता हूँ, जो मेरे साथ हाल ही में घटा। उससे मुझे तो मुस्कान का फंडा साफ हो गया।
एक रोज़ मुझे एक सज्जन (जिन्हें मैं वृद्ध की श्रेणी में रखता हूँ ) मिले । क्योंकि मैं उनसे परिचित नही था तो उन्होनें हमारे पिताजी का हवाला देते हुए अपना परिचय दिया। अब वो कुछ दिन बाद फिर मिले तो हमने उनके सम्मान में सिर झुका दिया और नमस्कार किया। उन्होंने भी भारतीय परंपरानुसार जवाब में हल्की सी मुस्कुराहट दे मारी। अंगे्रजी में इसे ’स्माइल पास’ करना कहा जाता है लेकिन अंग्रेजों की देन ये स्माइल होठों के द्वारा कई कोणों में अभिव्यक्त की जा सकती है। हमारे कदम आगे बढ़े। एक बार फिर हमें पिताजी के परिचित मिलें । हमने आदर पूर्वक उनका अभिनंदन किया और उन्होंने भी खूब जोश के साथ जवाबी फायर किया। लेकिन जाने क्यों उनकी जवाबी मुस्कुराहट भी दिल को नही भायी, जितनी तेजी से आई थी उतनी ही तेजी से निकल भी गई। इसका कारण    हमारी क्षणभंगुर मुलाकात भी हो सकती है जो काफी तीव्रता के कारण सही नही रही। वो अपने वाहन में सवार थे और हम कदमताल कर रहे थे। अब दिल को सांतवना तो देनी ही पड़ती है ना, क्या करें।

अपनी मंजिल के करीब पहुंचने से पहले मुझे एक बच्चा दिखा । सड़कपार से बागडि़यों की झोपड़ी से आया था। छोटा सा मासूम सा। उस के साथ आए, उससे उम्र में थोड़े बड़े बच्चे आगे निकल चुके थे। पानी से भरे बर्तन ढो रहे थे सभी। इस तरफ रह गये उस बच्चे को पानी से भरे एक पांच लीटर डिब्बा उस पार ले जाना था। उस मासूम से वो डिब्बा उठाया नही जा रहा था। वो मदद के लिए अपने साथियों को पुकार रहा था। मुझसे ये देखा न गया और मैंने मदद के लिए उस की तरफ हाथ बढ़ाया। अचानक से एक अंजान की मदद आते देख वो बच्चा थोड़ा ठिठका। शायद उसे ये मेरी शरारत लगी होगी। लेकिन उसने बड़ी ही सहजता से हँसते हुए मेरी मदद को ठुकरा दिया और उस डिब्बे को उठाने के लिए मशक्कत करने लगा। मैं फिर भी वही खड़ा रहा, इस उम्मीद में की वो मेरी मदद लेगा। वो सीधा हुआ और मेरी तरफ देख, फिर मुस्कुराया। और फिर से डिब्बे के साथ नूरा कुश्ती करने लगा। मैं वहां से चल दिया। मेरी पीछे मुड़ कर देखने की भी हिम्मत नही थी कि उसने उस भरे डिब्बे को कैसे सड़क पार पहुंचाया होगा।

वो छोटा सा बच्चा मुझे दो सीख दे गया। एक हमें अपना बोझ खुद उठाना जल्द से जल्द सीख लेना चाहिए। यहां बोझ से मेरा मतलब भार नही, जिम्मेदारी है। और दूसरी सीख ये कि असल मुस्कुराहट वो होती है जो दिल को छू जाए। उस छोटे से बच्चे की मुस्कुराहट में न कपट थी, न ईष्र्या थी, न द्वेष। उसकी मुस्कुराहट न कुछ मांग रही थी और न कुछ छिपा रही थी। उस बालक की मुस्कुराहट में एक सादगी थी, सच्चाई थी और उससे भी ऊपर पवित्रता थी।