Saturday, August 6, 2011

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा
किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा
एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
...मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा
मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा
आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा
 
-- निदा फ़ाज़ली

Friday, July 15, 2011

आज बारिश में भीगा तो

आज बारिश में भीगा तो बचपन की याद आ गयी,
आज बारिश में भीगा तो माँ की याद आ गयी,
भीगा मुझे देख कर उसका डांटना और फिर दौड़ कर तौलिया लाना...
और डांटते  हुए वो बदन को सुखाना
आज बारिश में भीगा तो सब याद आ गया...
आज बारिश में भीगकर घर नहीं
दफ्तर जाने की जल्दी थी..
आज माँ की नहीं
 बॉस की डांट सुननी थी.
आज गरमा गर्म चाय पकौड़े नहीं....
असाईनमेंट मेरा इंतज़ार कर रहे थे.
आज उम्र क उस पड़ाव पर आ गए कि
सावन की मस्ती भुला दी गयी
आज बारिश में भीगा तो बचपन की याद आ गयी
आज मेरे पास न माँ कि वो डांट है, न चाय पकोड़े है,
है तो बस उसका दिया हुआ रुमाल जिससे मैंने अपना शरीर पोछ लिया है..
और मेरे हाथ चटनी की जगह  कीबोर्ड पर कहीं खो गए है..
बारिश की फुहारें मेरे आंसू छुपा गयी
आज बारिश में भीगा तो बचपन की याद आ गयी