Sunday, August 22, 2010

बारिश , गाड़ी और मैं


दोस्तों  के साथ केसी तक क्या गया आफत मोल लेली. पहले ही बुखार ने हालत खराब कर रखी थी ऊपर से बॉस से बचते  बचाते थुपका खाने चले थे बोंड बन कर. सुबह से हो रही घनघोर बारिश ने करवट क्या बदली, सोचने लगे अब तो बेरोक- टोक कही भी आ जा सकते हैं. पर ये नहीं जानते थे की ऊपर वाला भी उस्ताद है. आर्डर लेके बैठे ही थे की फिर बरस पड़ा आसमान, मानो कह रहा हो की जब मैंने तुम्हे घर जाने का टाइम दिया तो तुम मटरगस्ती करने आ गए. हम इसी आस में बैठे रहे की कभी तो बंद होगी. बचपन की आदत जो होती है. मम्मी पापा बरस रहे होते हैं और हम बस चुपचाप गर्दन नीचे करके उनके शांत होने का इंतज़ार कर रहे होते हैं. क्योकि पता होता था  की अगर कुछ बोले तो गरज के साथ छीटे भी पड़ सकते हैं. जो खाने आये थे वो तो कब का पाच चुका था. तीन प्लेट एक्स्ट्रा मोमोज का भी कुछ अता पता नहीं था. दुकान बढ़ने  लगी थी. अब तो उठना बनता था. आखिर बैठे बैठे बारिश बंद होने से रही. तेज़ बारिश और ट्रेफिक जैम से जूझते हुए किसी तरह भीगते भागते ऑफिस पहुचे. नौ से ऊपर का समय हो चुका था.अब घर भागने की तैयारी थी. लेकिन ये क्या बारिश से भी बड़ी मुसीबत तो अभी मेरा इंतजार कर रही थी. 
भीग तो चुके ही थे. दौड़ के अपने केबिन की तरफ रुख किया और बैग संभालते हुए रेनकोट पहनते हुए बाहर आने लगा जैसे मुझे ही दुनिया बचाने की मुहीम में निकलना हो. मेरा रेनकोट है भी कुछ ऐसा जैसा पुराने जासूसी नाटको में डिटेक्टिव पहना करते थे. उसे पहन कर मैं कृष की तरह ही लग रहा था, बस मास्क की कमी थी. वैसे मैंने अपना चश्मा बैग में डाल दिया था. अब इस बारे में भी बताऊ की क्यों डाला? कमाल हैं. अरे भाई ! मेरे चश्मे में अभी वाइपर नहीं लगा ना इसीलिए.

 वैसे  मैंने कहा था ना की मुसीबत तो आनी अभी बाकी थी. बाहर गेट पर साइन मारते समय मुझे याद आया की मुझे आज अपने दोस्त का जापानी स्कूटर यानि एक्टिवा से घर जाना है. वैसे मैं भी इसी वाहन से सफ़र करता हूँ लेकिन आज मुझे समझ आ गया की वो इसे स्कूटी क्यों बुलाती है. अपनी गाड़ी की जो खस्ता हालत उसने बना रखा है उस से मेरा वास्ता अभी पड़ना बाकी था. मुझे किक स्टार्ट से एक्टिवा स्टार्ट करने की आदत सी पड़ चुकी थी तो मैंने इसमें भी जोर आजमाइश शुरू करदी. हार मान कर सेल्फ स्टार्ट करने की कोशिश में लग गया. हाथ जोड़े पैर पड़े पर ये रुष्ट देवी  की तरह मानने को ही तैयार नहीं थी. ऐसा लग रहा था की मेरी बलि मांग  रही है. बुखार, बारिश और ये इक नई बीमारी मेरे पल्ले पड़ गयी थी. किस किस को याद ना किया मैंने इतनी देर में.........अरे ये क्या स्टार्ट हो गई. जिसे मानता नहीं था उसका शुक्रिया अदा किय और रेस दी. 
      मुश्किल से पांच कदम भी नहीं चली थी की फिर बंद हो गयी. ऐसा लग रहा था मानो मैं कोई विडियो गेम खेल रहा हूँ और अभी कई स्टेजेज पार करनी बाकी हों. ज़रा सा स्लो करो या ब्रेक मारो  गाडी बंद. ऊपर से भारी बारिश, पानी भरी सड़के, ट्रेफिक, स्पीड ब्रेकर, गड्ढे .....कितने सारे विलेन खड़े थे मेरे रास्ते में. सब का सामना करते हुए और अपनी लाइफ दांव पर लगाता हुआ मैं इस गेम की आखिरी स्टेज पार करने में सफल रहा. मतलब यह की मैं घर फुल पीस पहुच चुका था. 
कल रात के इस थ्रिल्लिंग इंसिडेंट से कुछ हुआ हो या ना हुआ हो, एक बात क्लियर हो गयी थी. जिस दोस्त को हम धीरे गाड़ी चलाने के लिए बोलते थे,  वो हमारी राय को अनसुना क्यों करती थी. क्योकि गाड़ी धीमी हुयी नहीं की बंद हो जाती होगी इसीलिए वो एक्टिवा स्टार्ट होते ही रॉकेट की स्पीड से निकल जाती थी. वैसे मैंने कान पकड़ लिए है कि कम से कम इस वाहन का भार मैं तो आगे नहीं वहन कर पाउँगा. वो इसलिए आज ऑफिस आते वक़्त................
फिर वही कहानी दोहराई गयी.