Friday, July 2, 2010

कभी कभी

कभी कभी खुद से सवाल पूछने का मन करता है? फिर उन सवालों के जवाब  ढूंढे जाते हैं . काफी देर मन में उथल पुथल मचने के बाद कुछ जवाब मिलते हैं. और कुछ दिमाग के किसी कोने में छुप कर बैठ जाते हैं. शायद वो बाहर आना ही नहीं चाहते होंगे, ये सोच कर की कभी ऊँट पहाड़ के नीचे आएगा उन जवाबो को वही छोड़ दिया जाता है. इसके बाद शुरू होता है मंत्रणा का दौर, की कौन सा जवाब सही है या कौन सा गलत. सही गलत के चक्कर में दिमाग इतना घूम जाता है की पता ही चल पाता किस जवाब के साथ मैं जाऊ. कौन सा जवाब मुझे संतुष्ट कर रहा है और कौन सा परेशान, ये भी कभी कभी मुसीबत खड़ी कर देता है.
अब इस अचेतन मन को कैसे  समझाया जाये की तू ये क्या कर रहा है. कुछ भी करने से पहले हर इंसान सोचता विचरता तो होगा  लेकिन फिर भी गलतियाँ कर बैठता है. इसके बाद सिवाए पछताने के कुछ नहीं बचता है. और अगर कोई नहीं पछताए तो वो मेरी तरह गहन चिंतन में लग जाता है. चिंतन भी कभी कभी ही हो पता है, जवाब फिर भी नहीं मिलता है. आखिर क्यों? शायद हमारा मन ये मानने को तैयार ही नहीं हो पता है की गलती आखिर कहाँ हुई है. गलती हुई है,ये तो मान लेता है. शायद इसके पीछे हम ही जिम्मेदार है. गलती को मानते हुए भी उस को बचाने के लिए हमारे पास कई सारे तर्क मौजूद होते है. ये इंसानी फितरत ही तो है और क्या ?
 अब मुझे ही ले लीजिये मैंने कुछ सवालों के जवाब अभी भी छुपा के रख लिए हैं. ऐसा नहीं है की मैं उन जवाबों से बचने की कोशिश कर रहा हूँ. मैंने उन्हें उस समय के लिए बचा के रखा हुआ है जब मैं ठीक उसी तरह की स्थिति में फसुंगा. तब वो जवाब मेरा साथ देंगे और सही गलत के बीच के फासले को दूर करने की कोशिश करेंगे. इसीलिए कभी कभी कुछ सवालों के जवाब अनकहे ही छोड़ देने चाहिए. कभी कभी यही अनकहे अनसुलझे सवाल मेरे अकेलेपन को दूर करने की कोशिश करते है. जब कभी खुद को तनहा पाता हूँ तो कोल्ड स्टोरेज में पड़े उन सवालों के जवाब ढूँढने बैठ जाता हूँ. जवाब मिले या नहीं इसका पता नहीं लेकिन मन संतुष्ट हो जाता है.

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